क्यों क्रोध आया हनुमान जी को अपने प्रभु श्री राम पर

क्यों क्रोध आया हनुमान जी को अपने प्रभु श्री राम पर


 

हमारे समाज में बहुत सी दंतकथाय प्रचलित है जिनका किसी धार्मिक ग्रन्थ में उल्लेख नहीं मिलता। यह शिक्षाप्रद कहानियाँ है जो हमें बहुत कुछ सीखा जाती है। 

इसी तरह की कई दंतकथाएँ हनुमान बाबा के बारे में भी है। आइये आज आपको इसी तरह की एक दंतकथा के बारे में बताते है जिसमे हनुमान जी के अपने प्रभु श्री राम पर ही बड़ा क्रोध आया। 

यह उस समय की बात है जब भगवान श्रीराम लंका पर विजय प्राप्त कर लौट रहे थे तो उन्होंने गंधमादन पर्वत पर विश्राम किया। वहां पर ऋषि मुनियों ने श्री राम को बताया कि उन पर ब्रह्महत्या का दोष है जो शिवलिंग की पूजा करने से ही दूर हो सकता है। श्री राम ने सोचा मैं अपने आराध्य महादेव का विधिवत पूजन करता हूँ ताकि ब्रम्हत्या के पाप का निवारण हो सके। उस स्थान पर एक शिवलिंग स्थापना भी करना चाहते थे, जिसमें प्रभु के साक्षात दर्शन हों और आने वाले युगों में भी श्रद्धालुओं का कल्याण हो. 

इसी विचार से उन्होंने गणेशजी की स्थापना कर नवग्रहों की नौ प्रतिमाएं नल के हाथों स्थापित कराईं. इसके बाद उन्होंने वीर हनुमानजी को बुलाकर कहा “मुहूर्त के भीतर काशी जाकर महादेव शिव से लिंग मांगकर लाओ. पर देखना, मुहूर्त न टलने पाए.” 

हनुमान तुरंत कैलाश पर पहुंचें लेकिन वहां उन्हें भगवान शिव नजर नहीं आए अब हनुमान भगवान शिव के लिए तप करने लगे उधर मुहूर्त का समय बीता जा रहा था। अंतत: भगवान शिवशंकर ने हनुमान की पुकार को सुना और हनुमान ने भगवान शिव से आशीर्वाद सहित एक अद्भुत शिवलिंग प्राप्त किया। भगवान शिव ने हनुमान जी की प्रंशसा करने के लिए कहा अगर तुम न होते तो ये धाम कभी नहीं बन पता। तुम्हारे अलावा कौन इस तेज गति से कैलाश पहुंच पता। 

इसके बाद वीर हनुमान शिवलिंग ले तो चले, लेकिन इस बार उनकी उड़ान में भक्ति नहीं बल्कि गर्व था।  जिस मुख से जय श्रीराम के अलावा कुछ निकलता नहीं था, माया के प्रभाव से यह भी निकल गया कि मुहूर्त से पहले तो मैं पहुंच ही जाऊंगा, और नहीं तो मुहूर्त ही रोक दूंगा। 

इधर, श्रीराम के अन्तर्मन में भक्त की इस स्थिति की जानकारी हो गई।  उन्होंने ऋषियों से कहा कि अब तो मुहूर्त बीतने वाला है, क्या करूं। माता सीता ने इसका उपाय सुझाया और बालु से ही विधिवत रूप से शिवलिंग का निर्माण कर श्री राम को सौंप दिया जिसे उन्होंने मुहूर्त के समय स्थापित किया। 

अब हनुमान जी सागर तट पहुंचे तो देखा कि स्थापना और पूजन हो चुका है।  वे सोचने लगे-‘देखो! श्रीराम ने व्यर्थ का श्रम कराकर मेरे साथ यह कैसा व्यवहार किया है’ उन्होंने श्रीराम के पास पहुंच कर उनपर क्रोध दिखाया और कहने लगे कि काशी भेजकर लिंग मंगाकर मेरा उपहास किया जा रहा है ? यदि आपके मन में यही बात थी तो व्यर्थ ही मुझसे श्रम क्यों कराया। 

श्रीराम हनुमान की भावनाओं को समझ रहे थे, श्रीराम ने कहा, 'हे हनुमान! इसमें दु:खी होने की कोई बात नहीं है किन्तु यदि तुम्हारी इच्छा हो तो इस शिवलिंग को हटा कर तुम अपने शिवलिंग की स्थापना कर दो।' 

यह सुनकर हनुमानजी ने सोचा कि उनके एक प्रहार से तो पर्वत भी टूट कर गिर जाते हैं फिर ये रेत से बना शिवलिंग तो यूंही हट जाएगा। इसी अहंकार की भावना से हनुमान उस शिवलिंग को हटाने का प्रयास करने लगे। हनुमान जी ने अपनी पूंछ में लपेटकर हनुमानजी ने उस लिंग को बड़े जोर से खींचा. लेकिन यह क्या- लिंग का उखड़ना या हिलना-डुलना तो दूर की बात रही, वह टस-से-मस तक न हुआ, बल्कि हनुमान जी को ही झटका लगा गया और वह मूर्छित होकर गिर पड़े.

स्वस्थ होने पर हनुमानजी का घमंड टूट गया, वह सब कुछ समझ गए. उन्होंने कहा- जिनके नाम लिखे पत्थर सागर में तैर रहे हैं उनके हाथ से बनाया बालू का पिंड क्या टूट सकता था. मेरे अभिमान को क्षमा करो प्रभु. भक्त को फिर से शुद्ध मन में बदलता हुए देख श्रीराम ने उन्हें क्षमा कर दिया और हनुमान द्वारा लाए शिवलिंग को भी नजदीक ही स्थापित किया और उसका नाम हनुमदीश्वर रखा।

शिवलिंग स्थापित करने के बाद श्रीराम ने कहा, 'मेरे द्वारा स्थापित किए गए ज्योतिर्लिंग की पूजा करने से पहले तुम्हारे द्वारा स्थापित किए गए शिवलिंग की पूजा करना आवश्यक होगा। जो ऐसा नहीं करेगा उसे महादेव के दर्शन का फल प्राप्त नहीं होगा।' उसी समय से काले पाषाण से निर्मित हनुमदीश्वर महादेव का सबसे पहले दर्शन किया जाता है और उसके बाद रामेश्वरम का दर्शन करते हैं।



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